महामाहन को वैशाली नगर में अपने सद्रुणों और वरिष्ठता के कारण नगर पिता की उपाधि मिली हुई थी। वह इसे एक उत्तरदायित्व समझकर भली-भांति निभा रहे थे। एक दिन उस नगर पर शत्रु राज्य ने चढ़ाई कर दी। शत्रु की सेना बालकों, स्त्रियों और वृद्धों को भी सताने लगी। अत्यंत वृद्ध और अशक्त होते हुए भी महामाहन दुश्मनों के बीच आए और ललकार कर बोले, 'तुम्हें कुटिल नीति के कारण भले ही सफलता मिल गई है, पर अपने को विजेता समझने की भूल न करो। नगर की एक भी स्त्री, बालक या वृद्ध का बाल तक बांका नहीं होना चाहिए।'
शत्रु राजा ने बूढ़े महामाहन की यह मांग अनसुनी कर दी। संयोग से वह महामाहन का दूर का संबंधी था, इसलिए उसके प्रति उदारता दिखाते हुए उसने कहा, 'मैं आपकी और आपके परिवार की रक्षा का वचन दे सकता हूं। इसके अलावा मुझे किसी और से कुछ लेना-देना नहीं है।' महामाहन केवल अपनी सलामती नहीं चाहते थे। वह नगर पिता की हैसियत से अपना कर्त्तव्य निभाना चाहते थे। जब नगर के हजारों स्त्री-पुरुष कष्ट में हों, तब अकेले अपने कुटुंब को बचाने का उनके लिए कोई अर्थ नहीं था। उन्हें अपने प्राणों की चिंता नहीं थी। उनका नगर धर्म उन्हें पुकार रहा था। आक्रमणकारी राजा को उन्होंने खूब समझाया, खूब प्रार्थना की। अंत में राजा थोड़ा पिघला और बोला, 'महामाहन, आप इतना कह रहे हैं तो आपकी बात मान लेता हूं। लेकिन मेरी एक शर्त है। आप नदी में डुबकी मारें। आपके ऊपर आने से पहले जितने नागरिक जितनी सम्पत्ति लेकर भाग जाना चाहें भाग सकते हैं। देखता हूं आप कब तक नदी में रहते हैं।'
राजा की यह कठोर शर्त महामाहन मान गए। उन्होंने नदी में डुबकी लगाई और तली में पहुंच कर एक पेड़ की जड़ से चिपट गए। घंटों बीत जाने पर भी महामाहन ऊपर न आए। अंत में खोज करने पर महामाहन का शरीर वृक्ष की जड़ के साथ जकड़ा पाया गया। उन्होंने नगर की रक्षा के लिए अपना शरीर त्याग दिया था। इस तरह नगर पिता की उपाधि को उन्होंने सार्थक किया।
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