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Friday, October 12, 2012

जब गुरु का ज्ञान मिलता है

जब गुरु का ज्ञान मिलता है

सूफ़ी मान्यता है कि किसी व्यक्ति की समस्या का समाधान तब तक नहीं होता जब तक कि उसके गुरु की कृपा दृष्टि का एक अंश उस पर न पड़े.

एक बार एक सूफ़ी संत मृत्युशैय्या पर थे. उन्हें अपने प्रिय तीन नए-नए शिष्यों के भविष्य की चिंता थी कि इन्हें ज्ञान की ओर ले जाने वाला सही गुरु कहाँ कैसे मिलेगा. संत चाहते तो वे किसी सक्षम विद्वान का नाम ले सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और चाहा कि शिष्य स्वयं अपने लिए गुरु तलाशें.

इसके लिए संत ने मन ही मन एक विचित्र उपाय तलाशा. उन्होंने अपने तीनों शिष्यों को बुलाया और कहा – कि हमारे आश्रम में जो 17 ऊँट हैं उन्हें तुम तीनों मिलकर इस तरह से बांट लो – सबसे बड़ा इनमें से आधा रखेगा, मंझला एक तिहाई और सबसे छोटे के पास नौंवा हिस्सा हो.

यह तो बड़ा विचित्र वितरण था, जिसका कोई हल ही नहीं निकल सकता था. तीनों शिष्यों ने बहुत दिमाग खपाया मगर उत्तर नहीं निकला, तो उनमें से एक ने कहा – गुरु की मंशा अलग करने की नहीं होगी, इसीलिए हम तीनों मिलकर ही इनके मालिक बने रहते हैं, कोई बंटवारा नहीं होगा.

दूसरे ने कहा – गुरु ने निकटतम संभावित बंटवारे के लिए कहा होगा.

परंतु बात किसी के गले से नहीं उतरी. उनकी समस्या की बात चहुँओर फैली तो एक विद्वान ने तीनों शिष्यों को बुलाया और कहा – तुम मेरे एक ऊँट ले लो. इससे तुम्हारे पास पूरे अठारह ऊँट हो जाएंगे. अब सबसे बड़ा इनमें से आधा यानी नौ ऊंट ले ले. मंझला एक तिहाई यानी कि छः ऊँट ले ले. सबसे छोटा नौंवा हिस्सा यानी दो ऊँट ले ले. अब बाकी एक ऊँट बच रहा है, जो मेरा है तो उसे मैं वापस ले लेता हूँ. शिष्यों को उनका नया गुरु मिल गया था. गुरु शिष्यों की समस्या में स्वयं भी शामिल जो हो गया था.

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