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Wednesday, October 31, 2012

चींटी से सीखो इस जीवन का दर्शन


  • चींटी से सीखो इस जीवन का दर्शन 

    एक दिन एक व्यक्ति मुझसे मिला और कहने लगा, मैं मुंबई में जन्मा हूँ और अब न्यू यॉर्क में रहता हूँ। सवेरे 7.30 बजे काम पर निकलता हूँ तथा घर लौटने तक रात के 8.30 बज जाते हैं। मुझे अपनी संस्था के लक्ष्य भी पाने हैं तथा अपनी पत्नी एवं परिवार को भी क्वालिटी टाइम देना है। दफ्तर में उतनी देर तक काम करने के बाद मैं परिवार को वह क्वालिटी टाइम नहीं दे पाता और जब परिवार को थोड़ा समय देता हूँ तो दफ्तर का काम पिछड़ने लगता है। इसी बात से मुझे टेंशन होती है तथा मैं समझ नहीं पाता कि कैसे अपने जीवन को सुनियोजित करूं? मैं पाता हूँ कि मेरा जीवन असंतुलित सा है। कभी वह वास्तविक खुशियों से खाली लगता है और कभी वह बोझ से दबा हुआ सा लगता है।

    मैंने कहा, यह सच है कि तुम व्यस्त हो, यह एक तथ्य है। तुमने एक व्यस्त नगर में रहने का निश्चय खुद ही किया है। तब एक निश्चय और करो। यह संकल्प करो कि अपनी समस्याओं और व्यस्तताओं के बीच भी मैं बिल्कुल संतुलित एवं शांत बना रहूँगा। अपने सारे संबंधों का निर्वाह सहज ढंग से करूंगा। जीवन गणित नहीं है, जीवन चित्रकला की तरह है। चित्रकार अपनी कला से अपने चित्र में अपनी सुन्दर सृष्टि की रचना करता है।

    उस व्यक्ति को मेरी बात ठीक से समझ नहीं आई। उसने फिर पूछा- अपने व्यस्त कार्यक्रम के बीच शांत रहते हुए अपनी आकांक्षाएँ पूरी करने और परिवार पर समुचित समय देने का लक्ष्य मैं भला कैसे प्राप्त कर सकता हूँ, दोनों के बीच संतुलन कैसे कर सकता हूँ। एक जगह की कटौती दूसरी जगह की आमदनी है।

    मैंने उससे कहा, तुमने चींटी देखी है? उसी से अपने जीवन में संतुलन लाना सीखो। चींटी के जीवन के पीछे गहन दर्शन शास्त्र छिपा है।

    चींटी से सीखूं? उस व्यक्ति ने आश्चर्य से पलट कर प्रतिप्रश्न किया।

    हाँ, यदि तुम ध्यानपूर्वक देखोगे तो उससे बहुत कुछ सीख पाओगे, मैंने कहा।

    चींटी के सामने जो भी अड़चन आती है, वह अपना तरीका बदल कर, रास्ता बदल कर लचीलेपन से ऊपर से, नीचे से, आसपास से, किसी भी ढंग से उसे पार करती है। कार्य योजना में लचीलापन चींटी का बहुत सुंदर गुण है। दूसरी बात यह है कि चींटी कभी थक-हार कर अपना प्रयत्न बंद नहीं करती। तुम असली जिंदगी में भी देखोगे कि जीतने वाले कभी पलायन नहीं करते और पलायन करने वाले कभी जीत नहीं सकते।

    वे इतनी दूरदर्शी या अग्रसोची होती हैं कि गर्मियों में ही बारिश के दिनों के लिए सारे प्रबन्ध पूरे कर लेती हैं। उनमें अच्छी योजना बनाने की भी क्षमता होती है और वे बारिश के लिए तैयारी करने का काम कभी अगले दिन के लिए स्थगित नहीं करतीं।

    जब बरसात होती है तो चींटियाँ बहुत धैर्य से गर्मियों की प्रतीक्षा करती हैं। धैर्य बहुत बड़ा गुण है। एक बात और है कि किसी भी समय, चाहे जितना भी बड़ा लक्ष्य हो, चींटी के प्रयत्न में कभी कोई कमी नहीं होती। प्रयत्न सदैव सम्पूर्ण होना चाहिए।

    तुमने कभी गौर किया है कि चींटियों में तालमेल कितना सुन्दर होता है। वे दल बनाकर बड़े से बड़ा कार्य बिल्कुल सुगमता से निपटा लेती हैं। सारी चीटियाँ मिलकर कितनी सुन्दर बाँबी बना लेती हैं। चींटियाँ काम करते समय अपने आगे की एवं पीछे की चींटियों से निरंतर सूचनाओं का आदान प्रदान करती रहती हैं। यह दल की टीम भावना और सबके सम्मिलित बुद्धि प्रयोग से ही सम्भव हो पाता है। परस्पर सहयोग चींटी का एक और महत्वपूर्ण गुण है। वे अपने दल के नेता का अनुसरण बेहद अनुशासित भाव से करती हैं, दंभ एवं अहंकार को परे रखकर। मनुष्य के लिए भी विनय और अनुशासन उतनी ही बड़ी शक्ति है, वह कोई कमजोरी नहीं है, जैसा कि हम अपनी नासमझी या अहंकार के कारण समझ लेते हैं।

    क्या तुम भी अपना जीवन एक चींटी की भाँति सुनियोजित कर सकते हो?

    चींटी के इस दर्शन से प्रेरणा लो और तब देखो जीवन कितना सुन्दर बन जाता है।

Friday, October 12, 2012

जब गुरु का ज्ञान मिलता है

जब गुरु का ज्ञान मिलता है

सूफ़ी मान्यता है कि किसी व्यक्ति की समस्या का समाधान तब तक नहीं होता जब तक कि उसके गुरु की कृपा दृष्टि का एक अंश उस पर न पड़े.

एक बार एक सूफ़ी संत मृत्युशैय्या पर थे. उन्हें अपने प्रिय तीन नए-नए शिष्यों के भविष्य की चिंता थी कि इन्हें ज्ञान की ओर ले जाने वाला सही गुरु कहाँ कैसे मिलेगा. संत चाहते तो वे किसी सक्षम विद्वान का नाम ले सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और चाहा कि शिष्य स्वयं अपने लिए गुरु तलाशें.

इसके लिए संत ने मन ही मन एक विचित्र उपाय तलाशा. उन्होंने अपने तीनों शिष्यों को बुलाया और कहा – कि हमारे आश्रम में जो 17 ऊँट हैं उन्हें तुम तीनों मिलकर इस तरह से बांट लो – सबसे बड़ा इनमें से आधा रखेगा, मंझला एक तिहाई और सबसे छोटे के पास नौंवा हिस्सा हो.

यह तो बड़ा विचित्र वितरण था, जिसका कोई हल ही नहीं निकल सकता था. तीनों शिष्यों ने बहुत दिमाग खपाया मगर उत्तर नहीं निकला, तो उनमें से एक ने कहा – गुरु की मंशा अलग करने की नहीं होगी, इसीलिए हम तीनों मिलकर ही इनके मालिक बने रहते हैं, कोई बंटवारा नहीं होगा.

दूसरे ने कहा – गुरु ने निकटतम संभावित बंटवारे के लिए कहा होगा.

परंतु बात किसी के गले से नहीं उतरी. उनकी समस्या की बात चहुँओर फैली तो एक विद्वान ने तीनों शिष्यों को बुलाया और कहा – तुम मेरे एक ऊँट ले लो. इससे तुम्हारे पास पूरे अठारह ऊँट हो जाएंगे. अब सबसे बड़ा इनमें से आधा यानी नौ ऊंट ले ले. मंझला एक तिहाई यानी कि छः ऊँट ले ले. सबसे छोटा नौंवा हिस्सा यानी दो ऊँट ले ले. अब बाकी एक ऊँट बच रहा है, जो मेरा है तो उसे मैं वापस ले लेता हूँ. शिष्यों को उनका नया गुरु मिल गया था. गुरु शिष्यों की समस्या में स्वयं भी शामिल जो हो गया था.

Monday, October 8, 2012

कौए और उल्लू


Amit Tripathi 1:01am Oct 8
कौए और उल्लू
बहुत समय पहले की बात हैं कि एक वन में एक विशाल बरगद का पेड कौओं की राजधानी था। हजारों कौए उस पर वास करते थे। उसी पेड पर कौओं का राजा मेघवर्ण भी रहता था।

बरगद के पेड के पास ही एक पहाडी थी, जिसमें असंख्य गुफाएं थीं। उन गुफाओं में उल्लू निवास करते थे, उनका राजा अरिमर्दन था। अरिमर्दन बहुत पराक्रमी राजा था। कौओं को तो उसने उल्लुओं का दुश्मन नम्बर एक घोषित कर्र रखा था। उसे कौओं से इतनी नफरत थी कि किसी कौए को मारे बिना वह भोजन नहीं करता था।

जब बहुत अधिक कौए मारे जाने लगे तो उनके राजा मेघवर्ण को बहुत चिन्ता हुई। उसने कौओं की एक सभा इस समस्या पर विचार करने के लिए बुलाई। मेघवर्ण बोला "मेरे प्यारे कौओ, आपको तो पता ही हैं कि उल्लुओं के आक्रमणों के कारण हमारा जीवन असुरक्षित हो गया हैं। हमारा शत्रु शक्तिशाली हैं और अहंकारी भी। हम पर रात को हमले किए जाते हैं। हम रात को देख नहीं पाते। हम दिन में जवाबी हमला नहीं कर पाते, क्योंकि वे गुफाओं के अंधेरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं।"

फिर मेघवर्ण ने स्याने और बुद्धिमान कौओं से अपने सुझाव देने के लिए कहा।

एक डरपोक कौआ बोला "हमें उल्लूं से समझौता कर लेना चाहिए। वह जो शर्ते रखें, हम स्वीकार करें। अपने से तकतवर दुश्मन से पिटते रहने में क्या तुक है?"

बहुत-से कौओं ने कां कां करके विरोध प्रकट किया। एक गर्म दिमाग का कौआ चीखा "हमें उन दुष्टों से बात नहीं करनी चाहिए। सब उठो और उन पर आक्रमण कर दो।"

एक निराशावादी कौआ बोला "शत्रु बलवान हैं। हमें यह स्थान छोडकर चले जाना चाहिए।"

स्याने कौए ने सलाह दी "अपना घर छोडना ठीक नहीं होगा। हम यहां से गए तो बिल्कुल ही टूट जाएंगे। हमे यहीं रहकर और पक्षियों से सहायता लेनी चाहिए।"

कौओं में सबसे चतुर व बुद्धिमान स्थिरजीवी नामक कौआ था, जो चुपचाप बैठा सबकी दलीलें सुन रहा था। राजा मेघवर्ण उसकी ओर मुडा "महाशय, आप चुप हैं। मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।"

स्थिरजीवी बोला "महाराज, शत्रु अधिक शक्तिशाली हो तो छलनीति से काम लेना चाहिए।"

"कैसी छलनीति? जरा साफ-साफ बताइए, स्थिरजीवी।" राजा ने कहा।

स्थिरजीवी बोला "आप मुझे भला-बुरा कहिए और मुझ पर जानलेवा हमला कीजिए।'

मेघवर्ण चौंका "यह आप क्या कह रहे हैं स्थिरजीवी?"

स्थिरजीवी राजा मेघवर्ण वाली डाली पर जाकर कान मे बोला "छलनीति के लिए हमें यह नाटक करना पडेगा। हमारे आसपास के पेडों पर उल्लू जासूस हमारी इस सभा की सारी कार्यवाही देख रहे हैं। उन्हे दिखाकर हमें फूट और झगडे का नाटक करना होगा। इसके बाद आप सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत पर जाकर मेरी प्रतीक्षा करें। मैं उल्लुओं के दल में शामिल होकर उनके विनाश का सामान जुटाऊंगा। घर का भेदी बनकर उनकी लंका ढाऊंगा।"

फिर नाटक शुरु हुआ। स्थिरजीवी चिल्लाकर बोला "मैं जैसा कहता हूं, वैसा कर राजा कर राजा के बच्चे। क्यों हमें मरवाने पर तुला हैं?"

मेघावर्ण चीख उठा "गद्दार, राजा से ऐसी बदतमीजी से बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?"कई कौए एक साथ चिल्ला उठे "इस गद्दार को मार दो।"

राजा मेघवर्ण ने अपने पंख से स्थिरजीवी को जोरदार झापड मारकर तनी से गिरा दिया और घोषणा की "मैं गद्दार स्थिरजीवी को कौआ समाज से निकाल रहा हूं। अब से कोई कौआ इस नीच से कोई संबध नेहीं रखेगा।"

आसपास के पेडों पर छिपे बैठे उल्लू जासूसों की आंखे चमक उठी। उल्लुओं के राजा को जासूसों ने सूचना दी कि कौओं में फूट पड गई हैं। मार-पीट और गाली-गलौच हो रही हैं। इतना सुनते ही उल्लुओं के सेनापति ने राजा से कहा "महाराज, यही मौका हैं कौओं पर आक्रमण करने का। इस समय हम उन्हें आसानी से हरा देंगे।"

उल्लुओं के राजा अरिमर्दन को सेनापति की बता सही लगी। उसने तुरंत आक्रमण का आदेश दे दिया। बस फिर क्या था हजारों उल्लुओं की सेना बरगद के पेड पर आक्रमण करने चल दी। परन्तु वहां एक भी कौआ नहीं मिला।

मिलता भी कैसे? योजना के अनुसार मेघवर्ण सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत की ओर कूच कर गया था। पेड खाली पाकर उल्लुओं के राजा ने थूका "कौए हमारा सामना करने की बजाए भाग गए। ऐसे कायरों पर हजार थू।" सारे उल्लू 'हू हू' की आवाज निकालकर अपनी जीत की घोषणा करने लगे। नीचे झाडियों में गिरा पडा स्थिरजीवी कौआ यह सब देख रहा था। स्थिरजीवी ने कां-कां की आवाज निकाली। उसे देखकर जासूस उल्लू बोला "अरे, यह तो वही कौआ हैं, जिसे इनका राजा धक्का देकर गिरा रहा था और अपमानित कर रहा था।'

उल्लुओं का राजा भी आया। उसने पूछा "तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई?" स्थिरजीवी बोला "मैं राजा मेघवर्ण का नीतिमंत्री था। मैंने उनको नेक सलाह दी कि उल्लुओं का नेतॄत्व इस समय एक पराक्रमी राजा कर रहे हैं। हमें उल्लुओं की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए। मेरी बात सुनकर मेघवर्ण क्रोधित हो गया और मुझे फटकार कर कौओं की जाति से बाहर कर दिया। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।"

उल्लुओं का राजा अरिमर्दन सोच में पड गया। उसके स्याने नीति सलाहकार ने कान में कहा "राजन, शत्रु की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए। यह हमारा शत्रु हैं। इसे मार दो।" एक चापलूस मंत्री बोला "नहीं महाराज! इस कौए को अपने साथ मिलाने में बडा लाभ रहेगा। यह कौओं के घर के भेद हमें बताएगा।"

राजा को भी स्थिरजीवी को अपने साथ मिलाने में लाभ नजर आया अओ उल्लू स्थिरजीवी कौए को अपने साथ ले गए। वहां अरिमर्दन ने उल्लू सेवकों से कहा "स्थिरजीवी को गुफा के शाही मेहमान कक्षमें ठहराओ। इन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।"

स्थिरजीवी हाथ जोडकर बोला "महाराज, आपने मुझे शरण दी, यही बहुत हैं। मुझे अपनी शाही गुफा के बाहर एक पत्थर पर सेवक की तरह ही रहने दीजिए। वहां बैठकर आपके गुण गाते रहने की ही मेरी इच्छा हैं।" इस प्रकार स्थिरजीवी शाही गुफा के बाहर डेरा जमाकर बैठ गया।

गुफा में नीति सलाहकार ने राजा से फिर से कहा "महाराज! शत्रु पर विश्वास मत करो। उसे अपने घर में स्थान देना तो आत्महत्या करने समान हैं।" अरिमर्दन ने उसे क्रोध से देखा "तुम मुझे ज्यादा नीति समझाने की कोशिश मत करो। चाहो तो तुम यहां से जा सकते हो।" नीति सलाहकार उल्लू अपने दो-तीन मित्रों के साथ वहां से सदा के लिए यह कहता हुआ "विनाशकाले विपरीत बुद्धि।"

कुछ दिनों बाद स्थिरजीवी लकडियां लाकर गुफा के द्वार के पास रखने लगा "सरकार, सर्दियां आने वाली हैं। मैं लकडियों की झोपडी बनाना चाहता हूं ताकि ठंड से बचाव हो।' धीरे-धीरे लकडियों का काफी ढेर जमा हो गया। एक दिन जब सारे उल्लू सो रहे थे तो स्थिरजीवी वहां से उडकर सीधे ॠष्यमूक पर्वत पर पहुंचा, जहां मेघवर्ण और कौओं सहित उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्थिरजीवी ने कहा "अब आप सब निकट के जंगल से जहां आग लगी हैं एक-एक जलती लकडी चोंच में उठाकर मेरे पीछे आइए।"

कौओं की सेना चोंच में जलती लकडियां पकड स्थिरजीवी के साथ उल्लुओं की गुफाओं में आ पहुंचा। स्थिरजीवी द्वारा ढेर लगाई लकडियों में आग लगा दी गई। सभी उल्लू जलने या दम घुटने से मर गए। राजा मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को कौआ रत्न की उपाधि दी।

सीखः शत्रु को अपने घर में पनाह देना अपने ही विनाश का सामान जुटाना हैं।

Saturday, October 6, 2012

What It Means To Be Poor..

Chandan Kumar Nandy

What It Means To Be Poor...

One day a father of a very wealthy family took his son on a trip to the
country with the firm purpose of showing his son how poor people can be.
They spent a couple of days and nights on the farm of what would be
considered a very poor family. On their return from their trip, the father
asked his son, "How was the trip?" "It was great, Dad." "Did you see how
poor people can be?" the father asked. "Oh Yeah" said the son. "So what did
you learn from the trip?" asked the father. The son answered, "I saw that
we have one dog and they had four. We have a pool that reaches to the
middle of our garden and they have a creek that has no end. We have
imported lanterns in our garden and they have the stars at night. Our patio
reaches to the front yard and they have the whole horizon. We have a small
piece of land to live on and they have fields that go beyond our sight. We
have servants who serve us, but they serve others. We buy our food, but
they grow theirs. We have walls around our property to protect us, they
have friends to protect them." With this the boy's father was speechless.
Then his son added, "Thanks dad for showing me how poor we are."

Too many times we forget what we have and concentrate on what we don't
have. What is one person's worthless object is another's prize possession.
It is all based on one's perspective. Makes you wonder what would happen if
we all gave thanks for all the bounty we have, instead of worrying about
wanting more.

Friday, October 5, 2012

नगर पिता

नगर पिता 

महामाहन को वैशाली नगर में अपने सद्रुणों और वरिष्ठता के कारण नगर पिता की उपाधि मिली हुई थी। वह इसे एक उत्तरदायित्व समझकर भली-भांति निभा रहे थे। एक दिन उस नगर पर शत्रु राज्य ने चढ़ाई कर दी। शत्रु की सेना बालकों, स्त्रियों और वृद्धों को भी सताने लगी। अत्यंत वृद्ध और अशक्त होते हुए भी महामाहन दुश्मनों के बीच आए और ललकार कर बोले, 'तुम्हें कुटिल नीति के कारण भले ही सफलता मिल गई है, पर अपने को विजेता समझने की भूल न करो। नगर की एक भी स्त्री, बालक या वृद्ध का बाल तक बांका नहीं होना चाहिए।'

शत्रु राजा ने बूढ़े महामाहन की यह मांग अनसुनी कर दी। संयोग से वह महामाहन का दूर का संबंधी था, इसलिए उसके प्रति उदारता दिखाते हुए उसने कहा, 'मैं आपकी और आपके परिवार की रक्षा का वचन दे सकता हूं। इसके अलावा मुझे किसी और से कुछ लेना-देना नहीं है।' महामाहन केवल अपनी सलामती नहीं चाहते थे। वह नगर पिता की हैसियत से अपना कर्त्तव्य निभाना चाहते थे। जब नगर के हजारों स्त्री-पुरुष कष्ट में हों, तब अकेले अपने कुटुंब को बचाने का उनके लिए कोई अर्थ नहीं था। उन्हें अपने प्राणों की चिंता नहीं थी। उनका नगर धर्म उन्हें पुकार रहा था। आक्रमणकारी राजा को उन्होंने खूब समझाया, खूब प्रार्थना की। अंत में राजा थोड़ा पिघला और बोला, 'महामाहन, आप इतना कह रहे हैं तो आपकी बात मान लेता हूं। लेकिन मेरी एक शर्त है। आप नदी में डुबकी मारें। आपके ऊपर आने से पहले जितने नागरिक जितनी सम्पत्ति लेकर भाग जाना चाहें भाग सकते हैं। देखता हूं आप कब तक नदी में रहते हैं।'

राजा की यह कठोर शर्त महामाहन मान गए। उन्होंने नदी में डुबकी लगाई और तली में पहुंच कर एक पेड़ की जड़ से चिपट गए। घंटों बीत जाने पर भी महामाहन ऊपर न आए। अंत में खोज करने पर महामाहन का शरीर वृक्ष की जड़ के साथ जकड़ा पाया गया। उन्होंने नगर की रक्षा के लिए अपना शरीर त्याग दिया था। इस तरह नगर पिता की उपाधि को उन्होंने सार्थक किया।

जैसा चाहोगे वैसा ही मिलेगा

जैसा चाहोगे वैसा ही मिलेगा

एक धार्मिक कक्षा में शिक्षक ने अपने शिष्यों को घरू-कार्य दिया कि अगले दिन वे अपने धर्म ग्रंथ से एक एक अनमोल वचन लिख लाएँ, और पूरी कक्षा के सामने उसे पढ़ें और उसका अर्थ बताएं.

दूसरे दिन एक विद्यार्थी ने पूरी कक्षा के सामने पढ़ा – "लेने से ज्यादा अच्छा देना होता है." पूरी कक्षा ने ताली बजाई.

दूसरे विद्यार्थी ने कहा – "ईश्वर उन्हें पसंद करता है जो हँसी-खुशी अपना सर्वस्व दान करते हैं." कक्षा में एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी.

तीसरे ने कहा – "मूर्ख सदैव कंगाल बना रहता है."

उन तीनों ने एक ही धार्मिक किताब से अंश उठाए थे. मगर तीनों की अपनी दृष्टि ने अलग अलग अनमोल वचन पकड़े.

"जब आप सोचते हैं, जब आप किसी चीज की विवेचना करते हैं तो यह आपके चेतन-अवचेतन मस्तिष्क और आपकी सोच को ही प्रतिबिंबित करता है. अपनी सोच को धनात्मक बनाए रखें तो काले अक्षरों में भी स्वर्णिम आभा दिखाई देगी. "

Thursday, October 4, 2012

दुनिया में हर चीज अनमोल है****





Kiran Agarwaal
****दुनिया में हर चीज अनमोल है****
एक शिष्य ने पढ़ाई खत्म करने के बाद घर जाते समय अपने गुरु को स्वर्ण मुद्राएं गुरु दक्षिणा में दी। तब गुरुदेव बोले ये तो तुम्हारे काम की है मुझे तो गुरुदक्षिणा में वो चीज दो जो तुम्हारे काम की न हो। इतना सुनकर शिष्य अपने हाथों में मिटटी भर कर ले आया और बोला ये मेरे किसी काम की नहीं है आप इसे अपने पास रख लीजिए । इतने में मिटटी बोली कि मुझे बेकार समझा है अगर मैं न रहूं तो अनाज कैसे प
ैदा होगा तुम भूखे मर जाओगे। फिर शिष्य पत्थर के टुकड़े ले आया और गुरु को देने लगा तभी पत्थर बाले कि हम नहीं होगें तो मकान कैसे बनाओगे कहां रहोगे।फिर वह गंदगी ले आया और बोला ये तो किसी काम की नहीं है। आप इसे अपने पास रख लीजिए तभी गन्दगी बोली मुझे व्यर्थ समझते हो अगर मैं नहीं रहूंगी तो खाद कैसे बनेगी।
तब गुरु ने कहा कि यह भी व्यर्थ नहीं है तब गुरुदेव ने समझाया कि इस जगत में कोई भी चीज व्यर्थ नहीं है आदमी केवल अपने अहम के कारण कई चीजों को व्यर्थ समझने लगता है । तब उस शिष्य ने अपना अहम ही गुरु को दक्षिणा में देकर एक आदर्श शिष्य बना। .