" विपत्ति में उधार " भारतेन्दु हरिश्चंद्र उन दिनों बदहाली में जी रहे थे। ऐसा समय भी आया जब पत्र लिखने के लिए डाक खर्च वहन करना तक मुश्किल हो गया। उनकी मेज पर बिना टिकट लगे कई लिफाफे इकटठा हो गए। एक दिन उनके करीबी मित्र ने देखा तो वह माजरा समझ गया। उसने उन्हें पांच रुपये देते हुए कहा -'इन पत्रों को शीघ्र भेज दें लोग इनकी प्रतीक्षा करते होंगे। फिर वक़्त ने करवट बदली। भारतेन्दु के पास अच्छा पैसा आने लगा। इन दिनों भी वह मित्र उनके पास आता था। भारतेन्दु रोज पांच रुपये उसकी जेब में डाल देते थे। जब कई रोज तक ऐसा होता रहा तो एक दिन मित्र ने उनका हाथ पकड़ लिया। बोला बहुत हुआ। मैंने एक बार आपको पांच रुपये दिए थे, पर आप तो बीस बार मुझे लौटा चुके हैं। अब मैं नहीं लूंगा। ' मित्र कि बात सुन भारतेन्दु बोले- हे मित्र ! तुमने पांच रुपये ऐसे वक़्त पर दिए कि वे मेरा सहारा बने। यदि मैं जीवन भर भी रोज तुम्हें देता रहूँ तो भी उस ऋण से मुक्त नहीं हो पाउँगा।
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