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Wednesday, November 28, 2012

: Story of a Sculptor



deepak khonde
Subject: Story of a Sculptor
To: Pradhumn Jagtap <jpradhumn@gmail.com>, Dinesh Pund <dpund30@yahoo.com>, Dinesh Pund <dppund@anshulchemicals.com>, "asifsmulla@yahoo.in" <asifsmulla@yahoo.in>, Priya Shinde MSW <shindepriya15@gmail.com>, Rajesh Borade <borade.rajesh@varrocgroup.com>, randhir padwal <rpadwal@gmail.com>, Sanjay Yese <sanjay_aundh@yahoo.com>, Hemant Saindane <hemant_saindane@yahoo.com>, Pune Hr-Ganesh Kadam <kadam_ganesh28@yahoo.co.in>, Arindam Banerjee <arindam_banerjee71@hotmail.com>, Rakesh Pande <getrgp@rediff.com>, Girish Bajpai <gmb26775@gmail.com>, Sachin Deshpande <dsplacements@rediffmail.com>, pune hr-sameerjoshi <sameerjoshi218@yahoo.com>, Rohit Kadam <rohitkadam189@gmail.com>, parvez khan <parveznk@gmail.com>, Bhushan Karle <bhushan.karle@gmail.com>, Harshal Warude <harshal.warude@gmail.com>, "Pankaj Bharsakle-Boxing Asso." <pankajbharsakhale@hotmail.com>, Mahendra Thakur <thakurmahendra80@gmail.com>, Pune Hr-S Zope <Szope12@gmail.com>, Pune Hr-S Zope <szope12@gmail.com>, Mano j Mehra <manojmehra@msn.com>, Shyam Sonawane-New <shyam.1985@yahoo.com>, Umakant Bajaj <yash.agencies@yahoo.com>, Shubham Enterprises <jshubham@yahoo.co.in>, Joshi- Shriniwas Placement <plan100@vsnl.com>, Pune -HR Satish Mali <satishmali71@rediffmail.com>, ganesh pimple -ffs-engineer <ganesh.pimple@gmail.com>, PuneHr-Vipin Sadlapurkar <vipinsdlprkr@gmail.com>, Varsha Prabhu <varshaprabhu4u@yahoo.in>, "sanjaykhonde339@gmail.com" <sanjaykhonde339@gmail.com>, "amruta.tandale.52@facebook.com" <amruta.tandale.52@facebook.com>, "naamgumjayega15@gmail.com" <naamgumjayega15@gmail.com>, Madan Gopal Garga <mggarga@gmail.com>, "swapnil.yerunkar23@gmail.com" <swapnil.yerunkar23@gmail.com>, Frinds <vikasjitri@yahoo.co.in>, Kamlesh Agrawal <kamlesh2584@yahoo.com>


 Jai Gajanan;

Dear all,
 
Once there lived a very famous Sculptor. He was very proud of his achievements and was very ambitious to achieve more. Once an astrologer told him that he would die with in a few years. 
 
He was very upset and wanted to outsmart God's decision to take away his life. So instead of spending the rest of his precious time in the service of God, he decided to make 10 statues of himself perfectly resembling the real him in every way, except that they did not have life. When the day he was destined to die, he stood among those statues like a statue. As the astrologer predicted, the God of death, Yama Dharma Raja came to take him and God Himself was very confused to see the eleven statues and found it hard to differentiate the real sculptor from his perfect statues. Yama Dhama Raja meditated on Mahavaishnu and a bright idea came to his mind. 
 
Yama Dharma Raja said loudly to himself:" One of these statues are defective. Not all of them are equally perfect. "
 
The arrogant, real sculptor who was pretending to be a statue jumped out and shouted: "Who is a better sculptor than me to say that one of my statues are defective? All of them are perfect replicas of myself."
 
Yama Dharma Raja's confusion was cleared instantly and he took the sculptor away against all his protest. He tried to resist, he cried, he tried to hang on to his beloved statues, but nothing helped him to stay back in the same body.  
 
Yama Dharma Raja said: "Nobody can outsmart God. If only you had surrendered to God and spent your remaining life in the service of Him, end of your life in this body would have been more peaceful and smooth and you would have been experiencing eternal bliss. Arrogance and selfishness destroys one. When I was confused, did you see what I did? I meditated on Lord Vishnu and He persuaded me to say that "one of the statues are defective". Now I have to take you and at least in the next life that you will get after experiencing the results of your negative actions in this subtle body, please remember Bhagavan in pain and pleasure alike. He is the only one who can change or not change things."
 
May Bhagavan bless us with an attitude of total surrender!
 
Regards and prayers
 
Thanks and regards, 

Deepak Khonde.

__._,_.___

Monday, November 26, 2012

: "कहने का तरीका एक रात बादशाह अकबर ने सपना देखा कि खेत में गेहूं की ब...






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Nitin Garg
Nitin Garg updated his status: "कहने का तरीका एक रात बादशाह अकबर ने सपना देखा कि खेत में गेहूं की बहुत सारी बालियां लगी हैं। एक गाय सारी बालियों को चर जाती है। बस एक को छोड़ देती है। बादशाह की आंख खुल गई। वह सपने का फल जानने को बेचैन हो गए। उन्होंने रात में ही कुछ पंडितों और मौलवियों को बुलवाया। पंडितों और मौलवियों ने तिथियों की गणना की, ग्रहों की स्थिति का अध्ययन किया, चांद-सितारों को देखा। सभी ने एक स्वर में कहा कि यह बड़ा अशुभ सपना है। इसका अर्थ है कि देखते-देखते आपके अलावा आपके परिवार के सभी लोगों की मृत्यु हो जाएगी। यह सुन कर बादशाह नाराज हो गए। उन्होंने पंडितों और मौलवियों को बुरी तरह फटकार कर वहां से भगा दिया। इसके बाद बादशाह ने बीरबल को बुलाया और सपने का अर्थ बताने को कहा। बीरबल ने बड़ी विनम्रता के साथ निवेदन किया- बादशाह सलामत, अल्लाह आपको रोज ऐसे सपने दिखाए। बादशाह थोड़ा नाराज हो कर बोले कि हर समय मजाक अच्छा नहीं होता। बीरबल बोले-यह मजाक नहीं, हकीकत है। सपना बहुत अच्छा है। इसका अर्थ है कि आपसे ज्यादा लंबी उमर आपके खानदान में और किसी की नहीं है। यह सुनकर अकबर खुश हुए। उन्होंने बीरबल को एक हाथी इनाम में देने की घोषणा की। बाद में पंडितों और मौलवियों ने जब बीरबल पर बादशाह की चापलूसी करने का आरोप लगाया तो उन्होंने जवाब दिया-मैंने भी उन्हें वही कहा जो आपने कहा था। बस कहने का तरीका अलग है। अगर बुरी बात भी सही तरीके से कही जाए तो वह बुरी नहीं लगती।"

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वृंदावन में एक कथा प्रचलित है कि एक गरीब ब्राह्म...




Sunil Agarwal
वृंदावन में एक कथा प्रचलित है कि एक गरीब ब्राह्मण बांके बिहारी का परम भक्त था। एक बार उसने एक महाजन से कुछ रुपये उधार लिए। हर महीने उसे थोड़ा-थोड़ा करके वह चुकता करता था। जब अंतिम किस्त रह गई तब महाजन ने उसे अदालती नोटिस भिजवा दिया कि अभी तक उसने उधार चुकता नहीं किया है, इसलिए पूरी रकम मय व्याज वापस करे। ब्राह्मण परेशान हो गया। महाजन के पास जा कर उसने बहुत सफाई दी, अनुनय-विनय किया, लेकिन महाजन अपने दावे से टस से मस नहीं हुआ। मामला कोर्ट में पहुंचा।

कोर्ट में भी ब्राह्मण ने जज से वही बात कही, मैंने सारा पैसा चुका दिया है। महाजन झूठ बोल रहा है। जज ने पूछा, कोई गवाह है जिसके सामने तुम महाजन को पैसा देते थे। कुछ सोच कर उसने कहा, हां, मेरी तरफ से गवाही बांके बिहारी देंगे। अदालत ने गवाह का पता पूछा तो ब्राह्मण ने बताया, बांके बिहारी, वल्द वासुदेव, बांके बिहारी मंदिर, वृंदावन। उक्त पते पर सम्मन जारी कर दिया गया। पुजारी ने सम्मन को मूर्ति के सामने रख कर कहा, भगवन, आप को गवाही देने कचहरी जाना है।

गवाही के दिन सचमुच एक बूढ़ा आदमी जज के सामने खड़ा हो कर बता गया कि पैसे देते समय मैं साथ होता था और फलां-फलां तारीख को रकम वापस की गई थी। जज ने सेठ का बही-खाता देखा तो गवाही सच निकली। रकम दर्ज थी, नाम फर्जी डाला गया था। जज ने ब्राह्मण को निर्दोष करार दिया। लेकिन उसके मन में यह उथल पुथल मची रही कि आखिर वह गवाह था कौन। उसने ब्राह्मण से पूछा। ब्राह्मण ने बताया कि वह तो सर्वत्र रहता है, गरीबों की मदद के लिए अपने आप आता है। इस घटना ने जज को इतना उद्वेलित किया कि वह इस्तीफा देकर, घर-परिवार छोड़ कर फकीर बन गया। बहुत साल बाद वह वृंदावन लौट कर आया पागल बाबा के नाम से। आज भी वहां पागल बाबा का बनवाया हुआ बिहारी जी का एक मंदिर है।

पागल बाबा की दिनचर्या में एक अद्भुत चीज़ शामिल थी - उनकी भोजन पद्धति | वो प्रतिदिन जो साधू संतो का भंडारा होता उसके बाहर जाते वहा पर उनकी जूठन बटोरते फिर उसका आधा प्रभु द्वारिकाधीश को अर्पित करते और आधा स्वयं खाते | उनको लोग बड़ी हेय द्रष्टि से देखते थे पागल तो आखिर पागल | पर प्रभु तो प्रेम के भूखे है, एक दिन सभी साधुओ ने फैसला किया आज देर से भोजन किया जायेगा और कुछ जूठन भी नहीं छोड़ी जाएगी | पागल बाबा भंडारे के बाहर बैठे इंतज़ार कर रहे थे की कब जूठे पत्तल फेके जाये और वो भोजन करे, इसी क्रम में दोपहर हो गयी वो भूख से बिलखने लगे | दोपहर के बाद जब बाहर पत्तल फेके गए तो उनमे कुछ भी जूठन नहीं थी | उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक एक पत्तल पोछ कर कुछ जूठन इकट्ठी की अब शाम हो चुकी थी | वो अत्यंत भूखे हो गए थे | उन्होंने वो जूठन उठाई और अपने मुह में डाल ली | पर मुह में उसको डालते ही उनको याद आया की अरे आज जो बाके बिहारी को अर्पित किये बिना ही भोजन, ऐसा कत्तई नहीं होगा | अब उनके सामने बड़ी विषम स्थिति थी वो भोजन को अगर उगल देंगे तो अन्न का तिरस्कार और खा सकते नहीं क्योकि प्रभु को अर्पित नहीं किया | इसी कशमकश में वो मुख बंद कर के बैठे रहे और प्रभु का स्मरण करते रहे, वो निरंतर रोते जा रहे थे की प्रभु इस विपत्ति से कैसे छुटकारा पाया जाये | पर द्वारिकाधीश तो सबकी लाज रखते है - रात को बाल रूप में उनके पास आये और बोले क्यों रोज़ सबका जूठा खिलाते हो और आज अपना जूठा खिलाने में संकोच कर रहे हो | उनकी आँखों से निरंतर अश्रु निकलते जा रहे थे | प्रभु ने उनकी गोद में बैठ कर उनका मुख खोला और कुछ भाग निकाल कर बड़े प्रेम से उसको खाया | अब पागल बाबा को उनकी विपत्ति से छुटकारा मिला | ऐसे थे अपने पागल बाबा - और प्रभु द्वारिकाधीश |



Sunday, November 18, 2012

Diwali means "a row of lights





Chandan Kumar Nandy
Diwali means "a row of lights

Deepavali or Diwali means "a row of lights". It falls on the last two days
of the dark half of the Hindu month of Kartik (October-November).

*Mythical Origins of Diwali*

There are various alleged origins attributed to this festival. Some hold
that they celebrate the marriage of Lakshmi with Lord Vishnu. In Bengal the
festival is dedicated to the worship of Kali. It also commemorates that
blessed day on which the triumphant Lord Rama returned to Ayodhya after
defeating Ravana. On this day also Sri Krishna killed the demon Narakasura.
In South India people take an oil bath in the morning and wear new clothes.
They partake of sweetmeats. They light fireworks, which are regarded as the
effigies of Narakasura who was killed on this day. They greet one another,
asking, "Have you had your Ganges bath?" which actually refers to the oil
bath that morning as it is regarded as purifying as a bath in the holy
Ganga.
Give and Forgive

Everyone forgets and forgives the wrongs done by others. There is an air of
freedom, festivity and friendliness everywhere. This festival brings about
unity. It instills charity in the hearts of people. Everyone buys new
clothes for the family. Employers, too, purchase new clothes for their
employees.
Rise and Shine

Waking up during the 'Brahmamuhurta' (at 4a.m.) is a great blessing from
the standpoint of health, ethical discipline, efficiency in work and
spiritual advancement. It is on Deepavali that everyone wakes up early in
the morning. The sages who instituted this custom must have cherished the
hope that their descendents would realise its benefits and make it a
regular habit in their lives.
Unite and Unify

In a happy mood of great rejoicing village folk move about freely, mixing
with one another without any reserve, all enmity being forgotten. People
embrace one another with love. Deepavali is a great unifying force. Those
with keen inner spiritual ears will clearly hear the voice of the sages, "O
Children of God unite, and love all". The vibrations produced by the
greetings of love, which fill the atmosphere, are powerful enough to bring
about a change of heart in every man and woman in the world. Alas! That
heart has considerably hardened, and only a continuous celebration of
Deepavali in our homes can rekindle in us the urgent need of turning away
from the ruinous path of hatred.
Prosper and Progress

On this day, Hindu merchants in North India open their new account books
and pray for success and prosperity during the coming year. The homes are
cleaned and decorated by day and illuminated by night with earthen
oil-lamps. The best and finest illuminations are to be seen in Bombay and
Amritsar. The famous Golden Temple at Amritsar is lit in the evening with
thousands of lamps placed all over the steps of the big tank. Vaishnavites
celebrate the Govardhan Puja and feed the poor on a large scale.
Illuminate Your Inner Self

The light of lights, the self-luminous inner light of the Self is ever
shining steadily in the chamber of your heart. Sit quietly. Close your
eyes. Withdraw the senses. Fix the mind on this supreme light and enjoy the
real Deepavali, by attaining illumination of the soul. He who Himself sees
all but whom no one beholds, who illumines the intellect, the sun, the moon
and the stars and the whole universe but whom they cannot illumine, He
indeed is Brahman, He is the inner Self. Celebrate the real Deepavali by
living in Brahman, and enjoy the eternal bliss of the soul.

The sun does not shine there, nor do the moon and the stars, nor do
lightnings shine and much less fire. All the lights of the world cannot be
compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in
this light of lights and enjoy the supreme Deepavali.

Many Deepavali festivals have come and gone. Yet the hearts of the vast
majority are as dark as the night of the new moon. The house is lit with
lamps, but the heart is full of the darkness of ignorance.

*O man! Wake up from the slumber of ignorance. Realise the constant and
eternal light of the Soul, which neither rises nor sets, through meditation
and deep enquiry.*

*May you all attain full inner illumination! May the supreme light of
lights enlighten your understanding! May you all attain the inexhaustible
spiritual wealth of the Self! May you all prosper gloriously on the
material as well as spiritual planes!*



Sunday, November 11, 2012

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Saturday, November 10, 2012

Amit Tripathi 1:32am Oct 8
सिंह और सियार
वर्षों पहले हिमालय की किसी कन्दरा में एक बलिष्ठ शेर रहा करता था। एक दिन वह एक भैंसे का शिकार और भक्षण कर अपनी गुफा को लौट रहा था। तभी रास्ते में उसे एक मरियल-सा सियार मिला जिसने उसे लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया। जब शेर ने उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने कहा, "सरकार मैं आपका सेवक बनना चाहता हूँ। कुपया मुझे आप अपनी शरण में ले लें। मैं आपकी सेवा करुँगा और आपके द्वारा छोड़े गये शिकार से अपना गुजर-बसर कर लूंगा।" शेर ने उसकी बात मान ली और उसे मित्रवत अपनी शरण में रखा।

कुछ ही दिनों में शेर द्वारा छोड़े गये शिकार को खा-खा कर वह सियार बहुत मोटा हो गया। प्रतिदिन सिंह के पराक्रम को देख-देख उसने भी स्वयं को सिंह का प्रतिरुप मान लिया। एक दिन उसने सिंह से कहा, "अरे सिंह ! मैं भी अब तुम्हारी तरह शक्तिशाली हो गया हूँ। आज मैं एक हाथी का शिकार करुँगा और उसका भक्षण करुँगा और उसके बचे-खुचे माँस को तुम्हारे लिए छोड़ दूँगा।" चूँकि सिंह उस सियार को मित्रवत् देखता था, इसलिए उसने उसकी बातों का बुरा न मान उसे ऐसा करने से रोका। भ्रम-जाल में फँसा वह दम्भी सियार सिंह के परामर्श को अस्वीकार करता हुआ पहाड़ की चोटी पर जा खड़ा हुआ। वहाँ से उसने चारों और नज़रें दौड़ाई तो पहाड़ के नीचे हाथियों के एक छोटे से समूह को देखा। फिर सिंह-नाद की तरह तीन बार सियार की आवाजें लगा कर एक बड़े हाथी के ऊपर कूद पड़ा। किन्तु हाथी के सिर के ऊपर न गिर वह उसके पैरों पर जा गिरा। और हाथी अपनी मस्तानी चाल से अपना अगला पैर उसके सिर के ऊपर रख आगे बढ़ गया। क्षण भर में सियार का सिर चकनाचूर हो गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गये।

पहाड़ के ऊपर से सियार की सारी हरकतें देखता हुआ सिंह ने तब यह गाथा कही – " होते हैं जो मूर्ख और घमण्डी होती है उनकी ऐसी ही गति।"

सीखः कभी भी जिंदगी में किसी भी समय घमण्ड नहीं करना चाहिए।

Friday, November 9, 2012

स्वजाति प्रेम





Amit Tripathi 1:33am Oct 8
स्वजाति प्रेम
एक वन में एक तपस्वी रहते थे। वे बहुत पहुंचे हुए ॠषि थे। उनका तपस्या बल बहुत ऊंचा था। रोज वह प्रातः आकर नदी में स्नान करते और नदी किनारे के एक पत्थर के ऊपर आसन जमाकर तपस्या करते थे। निकट ही उनकी कुटिया थी, जहां उनकी पत्नी भी रहती थी।

एक दिन एक विचित्र घटना घटी। अपनी तपस्या समाप्त करने के बाद ईश्वर को प्रणाम करके उन्होंने अपने हाथ खोले ही थे कि उनके हाथों में एक नन्ही-सी चुहीया आ गिरी। वास्तव में आकाश में एक चील पंजों में उस चुहिया को दबाए उडी जा रही थी और संयोगवश चुहिया पंजो से छुटकर गिर पडी थी। ॠषि ने मौत के भय से थर-थर कांपती चुहिया को देखा।

ठ्र्षि और उनकी पत्नी के कोई संतान नहीं थी। कई बार पत्नी संतान की इच्छा व्यक्त कर चुकी थी। ॠषि दिलासा देते रहते थे। ॠषि को पता था कि उनकी पत्नी के भागय में अपनी कोख से संतान को जन्म देकर मां बनने का सुख नहीं लिखा हैं। किस्मत का लिखा तो बदला नहीं जा सकता परन्तु अपने मुंह से यह सच्चाई बताकर वे पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। यह भी सोचते रहते कि किस उपाय से पत्नी के जीवन का यह अभाव दूर किया जाए।

ॠषि को नन्हीं चुहिया पर दया आ गई। उन्होंने अपनी आंखें बंदकर एक मंत्र पढा और अपनी तपस्या की शक्ति से चुहिया को मानव बच्ची बना दिया। वह उस बच्ची को हाथों में उठाए घर पहुंचे और अपनी पत्नी से बोले "सुभागे, तुम सदा संतान की कामना किया करती थी। समझ लो कि ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और यह बच्ची भेज दी। इसे अपनी पुत्री समझकर इसका लालन-पालन करो।"

ॠषि पत्नी बच्ची को देखकर बहुत प्रसन्न हुउई। बच्ची को अपने हाथों में लेकर चूमने लगी "कितनी प्यारी बच्ची है। मेरी बच्ची ही तो हैं यह। इसे मैं पुत्री की तरह ही पालूंगी।"

इस प्रकार वह चुहिया मानव बच्ची बनकर ॠषि के परिवार में पलने लगी। ॠषि पत्नी सच्ची मां की भांति ही उसकी देखभाल करने लगी। उसने बच्ची का नाम कांता रखा। ॠषि भी कांता से पितावत स्नेह करने लगे। धीरे-धीरे वे यह भूल गए की उनकी पुत्री कभी चुहिया थी।

मां तो बच्ची के प्यार में खो गई। वह दिन-रात उसे खिलाने और उससे खेलने में लगी रहती। ॠषि अपनी पत्नी को ममता लुटाते देख प्रसन्न होते कि आखिर संतान न होने का उसे दुख नहीं रहा। ॠषि ने स्वयं भी उचित समय आने पर कांताअ को शिक्षा दी और सारी ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखाई। समय पंख लगाकर उडने लगा। देखते ही देखते मां का प्रेम तथा ॠषि का स्नेह व शिक्षा प्राप्त करती कांता बढते-बढते सोलह वर्ष की सुंदर, सुशील व योग्य युवती बन गई। माता को बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन उसने ॠषि से कह डाला "सुनो, अब हमारी कांता विवाह योग्य हो गई हैं। हमें उसके हाथ पीले कर देने चाहिए।"

तभी कांता वहां आ पहुंची। उसने अपने केशों में फूल गूंथ रखे थे। चेहरे पर यौवन दमक रहा था। ॠषि को लगा कि उनकी पत्नी ठीक कह रही हैं। उन्होंने धीरे से अपनी पत्नी के कान में कहा "मैं हमारी बिटिया के लिए अच्छे से अच्छा वर ढूंढ निकालूंगा।"

उन्होंने अपने तपोबल से सूर्यदेव का आवाहन किया। सूर्य ॠषि के सामने प्रकट हुए और बोले "प्रणाम मुनिश्री, कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया? क्या आज्ञा हैं?"

ॠषि ने कांता की ओर इशारा करके कहा "यह मेरी बेटी हैं। सर्वगुण सुशील हैं। मैं चाहता हूं कि तुम इससे विवाह कर लो।"

तभी कांता बोली "तात, यह बहुत गर्म हैं। मेरी तो आंखें चुंधिया रही हैं। मैं इनसे विवाह कैसे करूं? न कभी इनके निकट जा पाऊंगी, न देख पाऊंगी।"

ॠषि ने कांता की पीठ थपथपाई और बोले "ठीक हैं। दूसरे और श्रेष्ठ वर देखते हैं।"

सूर्यदेव बोले "ॠषिवर, बादल मुझसे श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी ढक लेता हैं। उससे बात कीजिए।"

ॠषि के बुलाने पर बादल गरजते-लरजते और बिजलियां चमकाते प्रकट हुए। बादल को देखते ही कांता ने विरोध किया "तात, यह तो बहुत काले रंग का हैं। मेरा रंग गोरा हैं। हमारी जोडी नहीं जमेगी।"

ॠषि ने बादल से पूछा "तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?"

बादल ने उत्तर दिया "पवन। वह मुझे भी उडाकर ले जाता हैं। मैं तो उसी के इशारे पर चलता रहता हूं।"

ॠषि ने पवन का आवाहन किया। पवन देव प्रकट हुए तो ॠषि ने कांता से ही पूछा "पुत्री, तुम्हे यह वर पसंद हैं?"

कांता ने अपना सिर हिलाया "नहीं तात! यह बहुत चंचल हैं। एक जगह टिकेगा ही नहीं। इसके साथ गॄहस्थी कैसे जमेगी?"

ॠषि की पत्नी भी बोली "हम अपनी बेटी पवन देव को नहीं देंगे। दामाद कम से कम ऐसा तो होना चाहिए, जिसे हम अपनी आंख से देख सकें।"

ॠषि ने पवन देव से पूछा "तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?"

पवन देव बोले "ॠषिवर, पर्वत मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मेरा रास्ता रोक लेता हैं।"

ॠषि के बुलावे पर पर्वतराज प्रकट हुए और बोले "ॠषिवर, आपने मुझे क्यों याद किया?"

ॠषि ने सारी बात बताई। पर्वतराज ने कहा "पूछ लीजिए कि आपकी कन्या को मैं पसंद हूं क्या?"

कांता बोली "ओह! यह तो पत्थर ही पत्थर हैं। इसका दिल भी पत्थर का होगा।"

ॠषि ने पर्वतराज से उससे भी श्रेष्ठ वर बताने को कहा तो पर्वतराज बोले "चूहा मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी छेदकर बिल बनाकर उसमें रहता हैं।"

पर्वतराज के ऐसा कहते ही एक चूहा उनके कानों से निकलकर सामने आ कूदा। चूहे को देखते ही कांता खुशी से उछल पडी "तात, तात! मुझे यह चूहा बहुत पसंद हैं। मेरा विवाह इसी से कर दीजिए। मुझे इसके कान और पूंछ बहुत प्यारे लग रहे हैं।मुझे यही वर चाहिए।"

ॠषि ने मंत्र बल से एक चुहिया को तो मानवी बना दिया, पर उसका दिल तो चुहिया का ही रहा। ॠषि ने कांता को फिर चुहिया बनाकर उसका विवाह चूहे से कर दिया और दोनों को विदा किया।

सीखः जीव जिस योनी में जन्म लेता हैं, उसी के संस्कार बने रहते हैं। स्वभाव नकली उपायों से नहीं बदले जा सकते।



Wednesday, November 7, 2012

दो बुड़े बृक्ष की कहानी




Chandan Kumar Nandy
दो बुड़े बृक्ष की कहानी

हरी ॐ

दो बड़ी उम्र के ब्रिक्ष परस्पर वार्ता कर रहे थे। एक बुडा पेड़ अपने दुसरे
साथी से बोला बोला भाई ! एक समय था जब आने जाने वाले मुसाफिर और नन्हे
मुन्ने बच्चे धुप से बचने के लिए और मेरी छाया में खेलने के लिए प्रतिदिन मेरे
पास आते थे। मै उस समय घनी छाया , मीठे फल, हरे पत्ते और सुखी लकड़िया उदारता
पूर्वक दिया करता था। उस समाय वे बहुत खुस होते थे, हँसते मुस्कुराते थे और
जब वे वापिस लौटकर जाते तो मुड -मुड़कर मेरी तरफ देखते हुए जाते थे। दुसरे
बुड़े ब्रिक्ष ने भी अपनी आँखों के नमी को छुपाते हुए कहा; मित्र हमारा भी तो
येही हाल है, जो तुम्हारा है। हमने भी अपने समय पर वह सब देखा है जो तुम कह
रहे हो। पर दुःख तो तब लगता है जब जब ये हमारी उपेक्षा करते है, हमारे पास से
गुजरते है लेकिन हमारे तरफ देखते नहीं। तभी कुछ बच्चे आपस में हँसते हुए, बात
करते हुए वहां से गुजरे। उन्हें देखकर पहले बुड़े पैड़ ने बच्चो से पूछा -
प्यारे बच्चो! अब तुम हमारे पास खेलने कियूं नहीं आते? एक बच्चा बोला तुम्हारे
पास अब हरियाली नहीं है, छाया नहीं है, फल नहीं है, और देने के लिए कुछ भी
नहीं है, फिर किसिलिये हम तुम्हारे पास ए?
यह सुनकर उसे बड़ा धक्का लगा, उसकी आंखे छलक गई , जो बच्चो को देखकर खुसी से
चमकने लगी थी, रुंधे हुए गले से घर -घराती आवाज में उसने कहा- तुम ठीक कहते
हो, अब मेरे पास कुछ भी तो नहीं है जिसके लिए तुम मेरे पास आया करते थे। लेकिन
बच्चो अभी भी मेरे पास छाल बची है, तुमहे इसकी जरुरत हो तो तुम इसे भी ले जा
सकते हो। अब तो मै जर्जर हो गया हूँ। यह सुनकर बच्चे वहां से चुपचाप चल दिए।
दुसरे पेड ने पहले पेड को सान्तना देते हुए कहा- बच्चो की बात को दिल से मत
लगाओ, बच्चे तो बच्चे है, उन्हें झूट बोलना नहीं आता। इसीलिए सब कुछ साफ़ साफ़
कहकर चले गए। आजकल सच्चाइ तो यही है साडी दुनिया स्वार्थी है , जब तक
स्वार्थ है तो सबको प्यारे लगते है, जब सामर्थ्य नहीं रहता , तो वही प्यारे
बेगाने हो जाते है। अरे दोस्त ! काहे मन भरी करते हो? हमें तो अपना शेष जीवन
यही गहन जंगल में बिताना है।
अगर हम इस मार्मिक लघु कथानक पर विचार करे तो शायद यह कहानी आज के समय में
ब्रिद्धजनो के सच्ची दास्ताँ बयां करती है। जब तक ब्यक्ति हर तरह से सबल है,
धन दौलत कमा रहा है, बच्चो को पड़ा - लिखा रहा है, उन्हें लायक बना रहा है,
उनकी हर तरह से रक्षा कर रहा है, तब तक तो उसकी तारीफ के कसीदे पड़े जाते है,
उसकी हंसी खुसी का खायाल रखा जाता है, उसकी इज्जत में सब की इज्जत समझी जाती
है, उसके सुख तो सुख और दुःख को दुःख सब मानते है। लेकिन जैसे ही संतान सत्ता
में आ जाते है सब घर -परिवार वाले बन जाते है, कार्य ब्यापार करने लगते है,
फिर जो कभी बहुत कीमती समझे जाते थे जिनकी इशारा के बिना घर में पत्ता भी नहीं
हिलता था, बाद में उपेक्षा और तिरस्कार के पात्र बन जाते है।
कैसा स्वार्थी है ये संसार क्योँ नहीं समझता समय की नजाकत को, क्यों कर रहा
जय नादानी का व्यबहार।



Sunday, November 4, 2012

लोभ पर जीत

Chandan Kumar Nandy
लोभ पर जीत 

कपिल नामक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था। वह उसकी हर इच्छा पूरी करना चाहता था लेकिन निर्धनता के कारण ऐसा नहीं कर पाता था। एक बार त्योहार के मौके पर पत्नी ने आभूषण पहनने की इच्छा जताई तो वह परेशान हो उठा। उसने सुना था कि राजा बहुत दानवीर है। जो ब्राह्मण सुबह-सुबह सबसे पहले उसके द्वार पर जाता है उसे वह 2 तोला सेना देता है। कपिल राजा के यहां सबसे पहले पहुंचने के लिए आधी रात को ही घर से चल पड़ा। सिपाहियों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और सुबह होने पर राजा के सामने पेश कर दिया।

राजा के पूछने पर कपिल ने पूरी बात सच-सच बता दी। राजा ने उसकी सरलता से प्रभावित होकर मनचाही वस्तु मांगने के लिए कहा। कपिल सोचने लगा कि 2 तोला सोना क्या मांगूं, 200 अशर्फी मांग लेता हूं, फिर अचानक खयाल आया कि 2 हजार मोहरें मांग लेता हूं ताकि रोज- रोज मांगने से छुटकारा मिले। आखिर में उसकी सोच लाखों-करोड़ों तक पहुंच गई। अंत में वह आधा राज्य ही मांगने जा रहा था कि उसे कुछ बोध हुआ और अपने लोभ से उसे घृणा हो गई। राजा ने फिर पूछा तो उसने कहा, 'महाराज मुझे जो
 चाहिए था वह मिल गया। '

राजा ने आश्चर्य से पूछा, ' लेकिन आपको तो मैंने कुछ दिया ही नहीं।'

' महाराज आज मैंने लोभ पर जीत हासिल कर ली। इससे बड़ी चीज और क्या होगी।'

Saturday, November 3, 2012

बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में एक किसान...




Inderjeet Sakhuja
बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में एक किसान रहता था। वह रोज़ भोर में उठकर दूर झरनों से स्वच्छ पानी लेने जाया करता था। इस काम के लिए वह अपने साथ दो बड़े घड़े ले जाता था। जिन्हें वो डंडे में बाँध कर अपने कंधे पर दोनों ओर लटका लेता था। उनमे से एक घड़ा कहीं से फूटा हुआ था और दूसरा एक दम सही था। इस वजह से रोज़ घर पहुँचते-पहुचते किसान के पास डेढ़ घड़ा पानी ही बच पाता था। ऐसा दो सालों से चल रहा था।सही घड़े को इस बात का घमंड था, कि वो पूरा का पूरा पानी घर पहुंचता है और उसके अन्दर कोई कमी नहीं है। वहीँ दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस बात से शर्मिंदा रहता था कि वो आधा पानी ही घर तक पंहुचा पाता है और किसान की मेहनत बेकार चली जाती है। फूटा घड़ा यह सोच कर बहुत परेशान रहने लगा और एक दिन उससे रहा नहीं गया। उसने किसान से कहा - मैं खुद पर शर्मिंदा हूँ और आपसे क्षमा मांगना चाहता हूँ। किसान ने पूछा - तुम किस बात से शर्मिंदा हो ? फूटे हुए घड़े ने दुखी होते हुए कहा - शायद आप नहीं जानते, पर मैं एक जगह से फूटा हुआ हूँ और पिछले दो सालों से मुझे जितना पानी घर पहुँचाना चाहिए था बस उसका आधा ही पहुंचा पाया हूँ। मेरे अन्दर ये बहुत बड़ी कमी है और इस वजह से आपकी मेहनत बर्वाद होती रही है। किसान को घड़े की बात सुनकर दुःख हुआ और वह बोला - कोई बात नहीं, मैं चाहता हूँ कि आज लौटते वक़्त तुम रास्ते में पड़ने वाले सुन्दर फूलों को देखो। घड़े ने वैसा ही किया, वह रास्ते भर सुन्दर फूलों को देखता आया। ऐसा करने से उसकी उदासी कुछ दूर हुई। पर घर पहुँचते– पहुँचते फिर उसके अन्दर से आधा पानी गिर चुका था। वो मायूस हो गया और किसान से क्षमा मांगने लगा। किसान बोला - शायद तुमने ध्यान नहीं दिया, पूरे रास्ते में जितने भी फूल थे वो बस तुम्हारी तरफ ही थे। सही घड़े की तरफ एक भी फूल नहीं था। ऐसा इसलिए क्योंकि मैं हमेशा से तुम्हारे अन्दर की कमी को जानता था और मैंने उसका लाभ उठाया। मैंने तुम्हारे तरफ वाले रास्ते पर रंग-बिरंगे फूलों के बीज बो दिए थे। तुम रोज़ थोडा - थोडा कर के उन्हें सींचते रहे और पूरे रास्ते को इतना खूबसूरत बना दिया। आज तुम्हारी वजह से ही मैं इन फूलों को भगवान को अर्पित कर पाता हूँ और अपना घर सुन्दर बना पाता हूँ। तुम्ही सोचो अगर तुम जैसे हो वैसे नहीं होते तो भला क्या मैं ये सब कुछ कर पाता ?
दोस्तों हम सभी के अन्दर कोई ना कोई कमी होती है, पर यही कमियां हमें अनोखा बनाती हैं। उस किसान की तरह हमें भी हर किसी को वो जैसा है वैसे ही स्वीकारना चाहिए और उसकी अच्छाई की तरफ ध्यान देना चाहिए और जब हम ऐसा करेंगे तब "फूटा घड़ा" भी "अच्छे घड़े" से ज्यादा मूल्यवान हो जायेगा।