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Friday, September 7, 2012

bhadvan main dhyan

सच्ची इबादत

एक बार एक बादशाह कुछ साथियों के साथ अपने मुल्क के सरहदी इलाकों का मुआयना करने जा रहा था। चलते-चलते नमाज का वक्त हो गया। अगल-बगल कोई साफ-सुथरी और समतल जमीन नहीं दिखी तो साथियों ने बादशाह के लिए वहीं रास्ते में ही मुसल्ला बिछा दिया। बादशाह ने अभी नमाज पढ़ना शुरू ही किया था कि एक युवती दौड़ती हुई आई और उसके मुसल्ले पर पैर रखती हुई आगे निकल गई। बादशाह को बड़ा क्रोध आया, लेकिन उस समय उसके मंत्री-संतरी वगैरह भी नमाज पढ़ रहे थे, सो वह कुछ नहीं बोला।

पर जब वह युवती उधर से लौटी, तो बादशाह ने डपट कर कहा, मूर्ख स्त्री! इधर से जाते समय तुझे दिखाई नहीं दिया कि मैं नमाज अता कर रहा हूं। तू जाए-नमाज पर पैर रख कर चली गई। युवती बोली, जहांपनाह! गुस्ताखी माफ हो। मेरा चित्त अपने स्वामी पर लगा हुआ था। बादशाह ने उसी तरह सख्ती से दरियाफ्त किया, ऐसा क्या हो गया है तुम्हारे स्वामी को?

युवती नम्रता से बोली, मेरे स्वामी काफी दिनों से परदेस गए हुए हैं। मुझे किसी ने बताया कि वे परदेस से आ रहे हैं, बस उन्हीं को देखने गई थी। लेकिन, वह सूचना झूठी निकली। वहां कोई और आया था। बादशाह डांट कर बोला, स्वामी के लिए जा रही थी तो क्या रास्ता और जाए-नमाज नहीं दिखाई दे रहा था? युवती बोली, उस समय मुझे अपने स्वामी के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। न आप दिखे और न ही आप का जाए-नमाज दिखाई पड़ा। लेकिन जहांपनाह, आप तो सर्वशक्तिमान और एकमात्र स्वामी अल्लाह में अपना चित्त लगाए हुए थे, फिर आप ने मुझे इधर से जाते हुए कैसे देख लिया?

बादशाह को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह बोला, तुम ठीक कहती हो। खुदा की इबादत करना और खुदा में चित्त लगाना दो अलग-अलग बातें हैं। जिसका चित्त खुदा में लग जाएगा उसे इस नश्वर दुनिया की बाकी चीजों के लिए कहां होश रह जाएगा।

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